15 Jan 2024

नौ से चार..... Nau Se Char.....

 




नौ से चार


नौ की लगी हड़बड़ी है

चार का रहता बेसब्री से इंतजार

भागमभाग और जद्दोजहद में

कैसे होगा बेड़ा पार?


नादानियां ठिठक सी गई है

लापरवाहियों को मिला कारागार

नौ-चार के बीच लटके अधर में

कैसे होगा बेड़ा पार?


छ्द्म आजादी छिन सी गई है

वक़्त काटना हुआ दुश्वार

विकल्प ढूंढ़ने के कशमकश में

कैसे होगा बेड़ा पार?


कर्तव्यपरायणता कुंद हो गई है

नियति पर गहराया ग़ुबार

कुंठित सोच की इस मनोवृति में

कैसे होगा बेड़ा पार?


अपने कर्म की पहचान करो

तज दो अपना मनोविकार

शिक्षण की संतुष्टि से

हो जाएगा बेड़ा पार।

                     --अजीत कुमार

                    X.VII.MMXXII

16 Dec 2023

पाबंद वक़्त का..... Paband Vakt ka.....


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ना पड़ कभी भी मंद तु

वक़्त का बन पाबंद तु।

खुद को ना समझ

वक़्त का बंदी

नहीं है ये तेरी

आजादी पे पाबंदी

विचारों को बदल दे चंद तु

वक़्त का बन पाबंद तु।


वक़्त से पहले तु

कर ले वक़्त का ज्ञान

कर्म की धारा में बह

वक़्त देगा तुझे पहचान

चाह को कर बुलंद तु

वक़्त का बन पाबंद तु।

व्यर्थ में वक़्त ना खर्च तु

लौट फिर न आएगा

ठहरा अगर वक़्त तुम्हारा

जीवन ठहर जाएगा

हर पल का उठा आनंद तु

वक़्त का बन पाबंद तु।

            -----अजीत कुमार

                   I.VIII.MMXXII

14 Dec 2023

विराम..... Viram

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प्रकृति तो न थी ऐसी

थोड़े में बिखर जाने की

हताशा जो शिखर चढ़ी

संबलता ही सुसुप्त हुई।

जिंदगी यूँ उलझी

इच्छाएं ही रूठ गई

जिद्द भी कुछ ऐसी

कि साँसे ही छूट गई।

हर की आँखें आज नम है

तेरे जाने का गम है

जननी की आँचल सिसक रही

जनक की आशाएं भी टूट गई।

विचलन के विक्षोभ में

कशमकश बढ़ती रही

दृढ़ता ज्यों ही हारी

लहरो में जिंदगी डूब गई।

न होने के एहसास से

ग़मगीन है हर कोई

अस्तित्व तो खो गया

यादें ही अब रह गई।

     - अजीत कुमार (०२vi२०२१)

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13 Dec 2023

उम्मीद..... Ummid

 विभीषिका कितनी ही
क्यों न हो विकराल
अवसादों के कितने
उलझे पड़े हों जाल
धैर्य कभी छुटने न देना
आश कभी टुटने न देना।
मौत के कितने ही
क्यों न हो समीप
बुझने से लगे क्यों न
जीवन के दीप
जिजीविषा कभी खोने न देना
संशय को हावी होने न देना।
जीवन-नैया कितनी ही
क्यों न खाए हिचकोले
सांसो की डोर कितनी ही
क्यों न अधर में डोले
पतवार कभी रुकने न देना
आसार कभी चुकने न देना।
स्याह सी कितनी ही
क्यों न हो निराशा की रात
शब्दो से कितने ही
क्यों न लगे हों आघात
उदासी कभी घर करने न देना
उम्मीद कभी बिखरने न देना। 

              - अजीत कुमार 
          (२७.०५.२०२१)

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12 Dec 2023

बुझती जिंदगी..... Bujhati Jindgi.....


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ये कैसी विपदा है

कैसी ये बीमारी है

कल तेरी बारी थी तो

कल मेरी बारी है।


कहीं हाहाकार है तो

कहीं है चित्कार

चौखट-चौखट मौत का

दस्तक देना जारी है

कल तेरी बारी थी तो

कल मेरी बारी है।


मुस्कान कर रही आज क्रंदन

किलकारियाँ हो चली मौन

आँधियां चल पड़ी ऐसी

उजड़ती जा रही क्यारी है

कल तेरी बारी थी तो

कल मेरी बारी है।


अपने भी हो जाते पराये

अछूत से लगने लगते साये

शंकाकुल हो उठती जिंदगी

गजब ये मर्ज न्यारी है

कल तेरी बारी थी तो

कल मेरी बारी है।


न कोई औषध

न ही समुचित रुग्णालय

लाशें दर लाशें बिछती रहती

कैसी ये तैयारी है

कल तेरी बारी थी तो

कल मेरी बारी है।


          --- अजीत कुमार (16.05.21)

30 Jul 2020

पसरता मौत

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    मौत पनप रही दर-बदर
    गाँव-गाँव शहर-शहर
    जिंदगी स्तब्ध है
    जिंदगानी निःशब्द है
    मौत पसर रही इधर-उधर
    गाँव-गाँव शहर-शहर।
       हर ओर सन्नाटा छाया है
       चहुँओर दहशतों का साया है
       फिज़ाओं में घुल रहा जहर
       मौत की उठ रही लहर
       गाँव-गाँव शहर-शहर।
    अपने छूट रहे पल-पल
    सपने टूट रहे हरपल
    घट रही जिंदगी पहर-दो-पहर
    मौत ढ़ा रही है कहर
    गाँव-गाँव शहर-शहर।
       आँखों में बसा है सूनापन
       सिसकियां भी अब है मौन
      मायूसी छायी है इस कदर
       मौत निकल पड़ा डगर-डगर
      गाँव-गाँव शहर-शहर।
   लाशों के ढ़ेर में
   जिंदगी सुबकती रहती
   जो आज जलती दिखती
   कल को आती बुझने की खबर
   मौत का चल पड़ा है सफर
   गाँव-गाँव शहर-शहर।
  *******XXIX-VII-MMXX*******
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17 Jan 2018

निश्तेज... Nishtej ......

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मैं सिमट सा गया हूँ
कुछ सीमित सा होने लगा हूँ मैं
उदासियों ने इस कदर घेरा
अवसादों का ऐसा लगा डेरा
संतापों के जंजीरों में
मैं संकुचित सा हो गया हूँ
कुछ सिकुड़ने सा होने लगा हूँ मैं।
कहीं कसमकश उद्वेलित है तो
कहीं उलझन आच्छादित है
के गलियारों में
मैं गुम सा हो गया हूँ
कुछ खोने सा लगा हूँ मैं।
अंतर्द्वंद्व चलता रहा
अंतर्मन सिसकता रहा
आहतों के थपेड़े खाके
मैं बिखर सा गया हूँ
कुछ टुटने सा लगा हूँ मैं।
शिथिलता सी छाने लगी है
अचलता सी आने लगी है
विराम लगती जिंदगी में
मैं निश्तेज सा हो गया हूँ
कुछ निश्चल सा होने लगा हूँ मैं।।।।।

                  ----- अजीत।
  *****XIV-I-MMXVIII*****