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प्रकृति तो न थी ऐसी
थोड़े में बिखर जाने की
हताशा जो शिखर चढ़ी
संबलता ही सुसुप्त हुई।
जिंदगी यूँ उलझी
इच्छाएं ही रूठ गई
जिद्द भी कुछ ऐसी
कि साँसे ही छूट गई।
हर की आँखें आज नम है
तेरे जाने का गम है
जननी की आँचल सिसक रही
जनक की आशाएं भी टूट गई।
विचलन के विक्षोभ में
कशमकश बढ़ती रही
दृढ़ता ज्यों ही हारी
लहरो में जिंदगी डूब गई।
न होने के एहसास से
ग़मगीन है हर कोई
अस्तित्व तो खो गया
यादें ही अब रह गई।
- अजीत कुमार (०२vi२०२१)
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