विभीषिका कितनी ही
क्यों न हो विकराल
अवसादों के कितने
उलझे पड़े हों जाल
धैर्य कभी छुटने न देना
आश कभी टुटने न देना।
मौत के कितने ही
क्यों न हो समीप
बुझने से लगे क्यों न
जीवन के दीप
जिजीविषा कभी खोने न देना
संशय को हावी होने न देना।
जीवन-नैया कितनी ही
क्यों न खाए हिचकोले
सांसो की डोर कितनी ही
क्यों न अधर में डोले
पतवार कभी रुकने न देना
आसार कभी चुकने न देना।
स्याह सी कितनी ही
क्यों न हो निराशा की रात
शब्दो से कितने ही
क्यों न लगे हों आघात
उदासी कभी घर करने न देना
उम्मीद कभी बिखरने न देना।
- अजीत कुमार
(२७.०५.२०२१)
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